एथेनॉल नीति, आयात दबाव और घरेलू कृषि का संतुलन आवश्यक
नई दिल्ली:
आनुवंशिक रूप से परिवर्तित मक्का (GM) इन दिनों फिर से राष्ट्रीय अख़बारों की सुर्खियों में है। ताजा घटनाक्रम दर्शाते हैं कि मक्का के आयात को लेकर लगातार गहमागहमी बनी हुई है। अमेरिका के साथ व्यापार समझौतों, महत्वाकांक्षी एथेनॉल मिश्रण लक्ष्यों, बीज नियमों और किसानों की आय तथा घरेलू खरीद से जुड़े मुद्दे इसे और अधिक संवेदनशील बना रहे हैं। अब मक्का केवल एक कृषि फसल नहीं, बल्कि भारत के आर्थिक और नीतिगत विकल्पों का एक गंभीर प्रश्न बन चुका है। अलग-अलग घटनाओं को देखें तो ये सामान्य प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन साथ में देखने पर साफ़ संकेत मिलता है कि जीएम मक्का समर्थक भारत की नॉन जीएम नीति पर पुनर्विचार का दबाव लगातार बढ़ा रहे हैं। फिलहाल कोई औपचारिक नीति परिवर्तन नहीं हुआ है, लेकिन वार्ता और नीति विमर्श का स्वर पहले से अधिक लचीला हो गया है। चूंकि अमेरिका में उत्पादित अधिकांश मक्का जीएम है, इसलिए इसका भारतीय बाजार में प्रवेश गंभीर प्रभाव डाल सकता है।
भारत के सामने प्रश्न केवल तकनीकी नहीं है। यह नैतिक, आर्थिक और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह खाद्य सुरक्षा, किसान की मेहनत, ग्रामीण आजीविका और भारत के अपने कृषि मार्ग को चुनने के संप्रभु अधिकार से संबंधित है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भले ही मक्का एक कमोडिटी हो लेकिन हमारे देश में ये आजीविका का साधन है। एथेनॉल मिश्रण को लेकर हालिया चर्चाओं ने इस बहस को और तेज कर दिया है। एथेनॉल मिश्रण के उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति को ऊर्जा नीति की सफलता के रूप में देखा गया है। जैसे जैसे मक्का को एथेनॉल के लिए एक संभावित कच्चे माल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, कुछ लोग आयात को पूरक विकल्प के रूप में देखने लगे हैं। इन सुझावों को अत्यंत सावधानी से परखने की आवश्यकता है। एथेनॉल नीति का उद्देश्य घरेलू कृषि को मजबूत करना होना चाहिए, न कि अनजाने में उसे कमजोर करना। भारत ने आनुवंशिक रूप से परिवर्तित फसलों, विशेष रूप से मक्का, पर नियामक सुरक्षा उपाय बनाए रखे हैं। आज भी यहाँ जीएम मक्का के आयात पर प्रतिबंध है और किसी भी स्वीकृति के लिए कठोर नियामक प्रक्रिया अनिवार्य है। यह नीति जैव सुरक्षा और सार्वजनिक हित को प्राथमिकता देती है, साथ ही घरेलू उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों को भी प्रोत्साहित करती है।
एक बात यह भी है कि हम किसानों की जमीनी वास्तविकताओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते। इधर कुछ दिनों पहले कर्नाटक के बेलगावी सहित कई क्षेत्रों में प्रतिकूल मौसम के कारण मक्का की फसल को नुकसान हुआ, गुणवत्ता घटी और किसानों को मजबूरी में कम दाम पर फसल बेचनी पड़ी। बिना किसी आयात के भी किसानों को देरी से खरीद और कमजोर बाजार समर्थन का सामना करना पड़ा। यह घटनाएं बताती हैं कि खरीद प्रणाली, मूल्य आश्वासन और समय पर हस्तक्षेप को और मजबूत करने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि यदि सस्ता आयातित मक्का हमारे भारतीय बाजार में प्रवेश करता है, तो मक्के की कीमतों पर दबाव और बढ़ सकता है। निजी खरीदार अधिक मोल भाव करेंगे और नॉन जीएम मक्का उगाने वाले किसानों की अनिश्चितता बढ़ सकती है। किसी भी नीतिगत बदलाव से पहले इन जोखिमों का गंभीर मूल्यांकन आवश्यक है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार यह स्पष्ट कर चुकी है कि देश नॉन जीएम मक्के की खेती को प्रोत्साहन देकर भी मक्का उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकता है। पारंपरिक प्रजनन, जलवायु अनुकूल किस्में, बेहतर कृषि पद्धतियां, सिंचाई दक्षता और यंत्रीकरण ने पहले ही सकारात्मक परिणाम दिए हैं। सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों, विस्तार सेवाओं और बीज गुणवत्ता प्रणालियों में निरंतर निवेश के माध्यम से भारत अपनी बढ़ती मांग को नॉन जीएम मक्के की खेती से भी पूरा कर सकता है। आज भारत में नॉन जीएम मक्का अनुकूलन शील है और विविध कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह धारणा कि केवल आनुवंशिक परिवर्तन ही उत्पादकता का मार्ग है, भारत के कृषि अनुभव से मेल नहीं खाती। भारतीय वैज्ञानिकों, भारतीय बीज कंपनियों और भारतीय किसानों की क्षमताओं को मजबूत करना दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
आनुवंशिक रूप से परिवर्तित फसलों से जुड़े नियामक ढांचे की प्रक्रिया को लेकर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। सरकार की तरफ से स्पष्ट, पारदर्शी और विज्ञान आधारित नियमन जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए आवश्यक है। ड्राफ्ट सीड्स बिल 2025 का उद्देश्य बीज गुणवत्ता, पंजीकरण और जवाबदेही को ज्यादा सुदृढ़ करना है। यह उद्देश्य स्वागत योग्य हैं, विशेष रूप से उन किसानों के लिए जो लंबे समय से नकली और घटिया बीजों से प्रभावित रहे हैं। नॉन जीएम मक्का के लिए इस विधेयक का प्रभावी क्रियान्वयन बीज की विश्वसनीयता बढ़ा सकता है और वास्तविक नवाचार को प्रोत्साहित कर सकता है। एथेनॉल विस्तार के लिए भी संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है। आयातित मक्का के अतिरिक्त भारत के पास घरेलू मक्का, क्षतिग्रस्त अनाज, कृषि अवशेष और कई एथेनॉल तकनीकों जैसे विकल्प उपलब्ध हैं। अल्पकालिक सुविधा दीर्घकालिक खाद्य और किसान सुरक्षा पर हावी नहीं होनी चाहिए। ऊर्जा सुरक्षा को खाद्य सुरक्षा के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा, न कि उसकी कीमत पर।
नॉन जीएम मक्का का चयन कोई भावनात्मक निर्णय नहीं है। यह आर्थिक, पारिस्थितिक और नैतिक आधार पर लिया गया एक रणनीतिक निर्णय है। नॉन जीएम मक्का किसान की स्वायत्तता और बीज चयन की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। यह जैव विविधता को संरक्षित करता है और आनुवंशिक प्रदूषण के जोखिम को कम करता है। यह भारत को उन घरेलू और निर्यात बाजारों के लिए सक्षम बनाता है जहां नॉन जीएम मक्के की मांग है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह बीज और खाद्य प्रणालियों पर राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा करता है। वैश्विक स्तर पर नॉन जीएम मक्का की मांग आज भी मजबूत बनी हुई है। यदि भारत आज अपनी पहचान की रक्षा करता है, तो वह एक विश्वसनीय और जिम्मेदार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभर सकता है। एक बार यह पहचान खो गई, तो इसे पुनः प्राप्त करना आसान नहीं होगा।
आज भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। एक मार्ग अल्पकालिक सुविधा और बाहरी निर्भरता की ओर ले जाता है। दूसरा मार्ग धैर्य, निवेश और अपने लोगों तथा संस्थानों पर विश्वास की मांग करता है। केवल एक मार्ग किसान को केंद्र में रखता है। केवल एक मार्ग जैव विविधता और दीर्घकालिक स्थिरता की रक्षा करता है। जीएम मक्का को लेकर बढ़ती चर्चा वैश्विक दबावों और बदलते बाजार समीकरणों को दर्शाती है।यह समय है एक ऐसी राष्ट्रीय मक्का रणनीति को पुनः सुदृढ़ करने का जो नॉन जीएम नवाचार, उचित मूल्य, मजबूत खरीद व्यवस्था, पारदर्शी नियमन और किसान सहभागिता पर आधारित हो। मक्का भले ही एक अनाज हो, लेकिन इससे जुड़े निर्णय कहीं अधिक व्यापक हैं। ये निर्णय आजीविका, पारिस्थितिकी और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को आकार देते हैं।
*लेखिका: डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी*
पर्यावरणविद्, समाजसेविका एवं पुस्तक ‘Maize Mandate’ की लेखिका




