बढ़ता जातिवाद: एक चिंताजनक परिदृश्य

अंजलि प्रिया, वरिष्ठ पत्रकार

इन दिनों देश में धार्मिक कट्टरता धीरे-धीरे जातिगत और भाषाई टकराव में बदल रही है। बेरोज़गारी, महंगाई और बढ़ती गरीबी के बीच राजनीति धर्म–जाति के झूलते इश्यूज़ पर अटकी दिख रही है। हालाँकि इस पूरे माहौल के लिए केवल राजनेताओं को दोष देना सही नहीं, बल्कि चरमपंथी विचारधाराओं का भी इसमें बड़ा योगदान है।

इतिहास में जाति–विहीनता के लिए आंदोलन

 

भारत की सवर्ण–अनुसवर्ण विभाजन की जड़ें हजारों साल पुरानी हैं। मध्यकालीन समाज में ब्राह्मणों ने स्वयं को सर्वोच्च मानकर दलितों को आरक्षण से वंचित रखा और छुआछूत जैसी कुरीतियाँ पनपाईं। लेकिन इसी समय में ऐसे समाज-सुधारक भी उठे जिन्होंने भेदभाव के खिलाफ आवाज़ दिलाई—ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, राजा राम मोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती ने शिक्षा का अधिकार और समानता की लड़ाई लड़ी।

आज के चरमपंथियों की भूमिका

स्वतंत्रता के ७५ वर्ष बाद हम देख रहे हैं कि चरमपंथी गुट दोनों पक्षों—सवर्ण और दलित—में सक्रिय हैं। कुछ ब्राह्मणवादी आज भी खुद को धर्म का ठेकेदार मानते हैं, तो कुछ दलित समूह पुरानी प्रतिशोध की भावना से चलते हैं। सूचनात्मक सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म इनका हथियार बन चुका है, जहाँ राजनीतिक दल मुद्दा तलाशते हैं और मीडिया हेडलाइन के लिए इन झगड़ों को हवा देती है।

असली मुद्दे से ध्यान भटकना

देश की असली समस्याएँ—बेरोज़गारी, महंगाई, भूख और गरीबी—अनदेखी होती जा रही हैं। चरमपंथियों की पहलकदमी से राजनीतिज्ञों को बहस का नया मुद्दा मिलता है और मीडिया को टीआरपी, लेकिन आम जनता की रोज़मर्रा की परेशानियाँ वैसे ही बनी रहती हैं।

विकास के पार विचार की ज़रूरत

समय के साथ समाज बदलता है। अब हमें एक ऐसी दुनिया में सांस लेने का अवसर मिला है जहाँ जाति और धर्म से ऊपर उठकर शिक्षा और अनुशासन को महत्व दिया जाता है। चाहे ब्राह्मण चरमपंथी हों या दलित कट्टरपंथी, यह समझना होगा कि किसी विशेष जाति या धर्म का वर्चस्व देश के विकास का कारण नहीं बन सकता। अगर चरमपंथ और धार्मिक कट्टरता जारी रहे, तो इससे बड़ी कोई विफलता नहीं होगी।

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